Friday, April 3, 2020

फ़रोना,,या फिर मरोना

फ़रोना,, या,,मरोना

,मसला ये था कि ठीक पड़ोस में रहा एक आम का झाड़,,,,दीवार के उस पार,,जड़ें पड़ोसी के आंगन गड़ी थी,पर धूप तलाशती डालियाँ कंहा माने ,,,,हमारी हवाई चौहद्दी का मण्डपाच्छादन हो रक्खा था,,, हरी हरी पत्तियां ,,जंहा बुढ़ाती ,,,कलाबाजियां खाते,, हमारी फर्श पे पीली कालीन बन पसर जाती,,,,उतरती दुपहरी की कूलर फेल गर्मी ,,, हमारी खिड़की तक पहुचने का दुःसाहस कभी न कर पाई,,करें तो भी कैसे सारी ऊष्मा,,तो आम मण्डप सोंख लेता,,, केवल दो फुट उस पार ,,दूसरे के स्वत्व का ये झाड़,,,जाने कौन जनम का रिश्तेदारी निभाते,,, सारा सुख हम पर उलेड रहा था,, और तो और घोसला बनाती पडकी,,या कुहकती कोयल,,पीलक भी इसी तरह की डाल में सहूलियत महसूस करती!!! कमी थी तो केवल एक,,,,ये आम बौराता तो जरूर था,,पर फरता नही था,,
          पड़ोसी रहे बड़े डिपलमेटिक टाइप,, शांत एवम भद्र पुरुष,,उनकी पैनी नज़र इस भेदभाव को गहराई से महसूस कर रही थी,,,और फिर उनके आंगन एक दूसरा झाड़ दसहरी आमों का भी था,,जो झाड़ चौहद्दी की मर्यादा को भी मानता था,,और मालिक के प्रति वफादारी के भाव से भी भरा था,,,, पिछले दो मौसम से अपने प्रतिद्वंद्वी को नीचा दिखाते दसहरी झाड़ ,,आचार की बर्निया भी भर रहा था और पुलाव के नीचे पक कर महक भी रहा था,,, लाभ हानि का फार्मूला दोनों झाड़ों के बीच लम्बी दरार डाल चुका था,,,
              इस मौसम के बौर जब आये तो पड़ोसी बड़ी देर से हमारे प्रति अनुरक्त पेड़ को निहार रँहे थे,,,छत पे छाँह का आनंद लेते हुए मुझसे मुखातिब हुए,,,यार अबकी जो ये नही फरा तो सोंचता हु,,,कटवा दूं,, थोड़े जोर से बोले,,,,,लाभार्थी हृदय कांप गया,, नही भैया,,,फ़रेगा कई प्रजाति थोडा वक्त लेती है,,मैं बोला,, और फिर,,,इतना सुंदर झाड़ है,,काहे कटवाएंगे,,,शायद मेरी ये प्रशंसा,,,हानि की भावना को और भभका गई,, बोले,,क्या सुंदर,,,जगह अलग घेरे है,,कचरा अलग,,,,,और फिर देखो उस दसहरी को,,तुलना ,,,आलोचना,,,झाड़ सुन रहा था लगा,,मैं फुसफुसाया,,,फर जा रे
                उस रोज दसहरी पूरे शबाब में हरे आमों से भरा ,,मानों  दूसरे को जिबरा रहा था जब पेड़ काटने के वास्ते दो मजदूर हमारी ओर की डालियों को बांध रँहे थे,,की कोई नुकसान पड़ोस में न हो जाये,,मैंने आखिरी बार संयत प्रतिरोध किया,,भैया काहे कटवा रँहे है,,अगला सीजन देख लेते,,,पड़ोसी बोले ,,,कोई फायदा नही ,,ये नही फ़रेगा,,,दूसरा दसहरी लगाएंगे अबकी,,,आरी चलने लगी,,,डालियाँ हरे पत्तों को समेटे गिरती गई,,और धूप मेरी खिड़की को घेरने लगी,,,अपने इस साथी की,इस विदाई की घड़ी मैं पड़ोसी के साथ डटा रहा,,,और जब हड्डियों के चरचराने के स्वर से मूल तना धराशाई हुआ,,,तो अवाक,,,,,,,,ऊपर की डंगाल पर दो सुनहरे पके आम लगे थे,,,,पड़ोसी ने मुझसे कुछ झेंपते हुए,,धीरे से वो आम तोड़ लिए,,, बाद में बता रहे थे,,पके जरूर थे,,पर थे खट्टे,,बेहद खट्टे,,,

अनुभव

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