Saturday, August 17, 2019

चार चिन्हारी

चार चिन्हारी,,
जब प्राथमिकताएं  बदलें  तो पहले पहलअचरज आम बात है,,,बड़ी विकास योजनाओं की जगह जिक्र नरवा  गरवा घुरवा बारी का हो,,तो प्रश्न लाजमी हो जाता है,,कि,, आखिर क्यूँ,,,,,प्रगति  की प्रकृति जितनी जमीनी होगी,,विकास उतना समानवेशी होगा,,छतीसगढ़ के,गढ़ रायपुर,, दुर्ग ,बिलासपुर जैसे नगरीय केंद्रों,, के स्रोत हमारे ग्राम्य और वनप्रदेश है,,,भिलाई इस्पात संयंत्र या उरला के कारखानों के बहुत पहले से यंहा का उद्यमी किसान ,,बनिस्बत कम उपजाऊ लाल माटी में ,,,अपने तकनीकी ज्ञान से दुबराज ,,जवां फूल की सुनहरी बालियां उगाता आ रहा था,,मूलतः माटी के इसी जुड़ाव से छत्तीसगढ़ की भाषा,,नृत्य,,आहार,,पहनावे,,का जन्म हुआ है
         ,,,जो कभी धान के खेत नही बूड़ा ,,वो  छत्तीसगढ़ को गेंड़ी चढ़ कर ही देख रहा है,, बात नरवा की हो तो ये हर गाँव के आसपास से मानसूनी जल को भूजल से जोड़ने वाली आदिम धरातलीय जल रेखाएं है,, जिसमे डुबकियां लगा कर यंहा का बचपन जवां होता है,,गरवा हमारा वो पशुधन है जो आधुनिक कृषि व्यवस्था के चपेट में आकर अब जुगाली करता,,आपकी गाड़ी का रास्ता रोक लेता है,,पर छेने पे सिकी कपूरी रोटी आज भी उतना ही सुवाद देती है,,देशी गाय के घी की छौक आज कितनो की किस्मत में है,,गोबर्धन पूजा ही छतीसगढ़ की असली दीवाली है,,
            घुरवा यंहा के वो प्राचीन उर्वरक कारखाने है जिनसे निकले  गोबर खातू से यंहा का चावल  दुनिया की सबसे सुगन्धित महक से महकता था और बारी ,थे,आदिम हार्टिकल्चर फील्ड ,,हमारे स्थानीय देव ,,देविया,,भी इन्ही संसाधनों की रक्छा प्राचीन काल से कर रहे है,, अरपा ,,पैरी के धार,,या मोर संग चलव जी जैसे गीतों के बोल,, उस आदिम प्रेम के रूप में आज भी आंखे गीली कर देती है,,ऐसे में अर्थव्यवस्था के आधुनिक प्रतीकों से भिन्न नरवा गरवा घुरवा बारी,,एक ऐसा विकास मॉडल है जो हमारे पर्यावरण के साथ हमे उठने में मदद करता है,,सतत विकास के उस वैश्विक संकल्पना से हमे जोड़ता है जो अन्धाधुन्ध,,संशाधनों के दोहन से भिन्न आने वाली पीढ़ियों को ध्यान रखकर सन्तुलन को अपना लक्छ बनाती है ठीक है कि पोरा की बैल जोड़ी की जगह ट्रेक्टर ने ली है पर हमारे विश्वास और इतिहास ,,के ही ये चार चिन्हारी अब एक नया प्रतिमान गढ़ेंगे,,
                  

अनुभव