Sunday, February 23, 2020

खुड़िया

जो खुड़िया झील न होती,,तो फिर खूबसूरती का अर्थ कुछ कमतर जरूर होता,,,मनियारी नदी पे बनी इस मानव निर्मित झील को मैकल की पहाड़ियों ने चारों ओर से मानो समेट रखा है,,पहरेदार है,,सतपुड़ा के घने,, ऊँघते अनमने,, जंगल,,,,नीली झील सूरज के साथ ,,जब जागती है,,तो अलसाई गुलाबी सी सलवटों से भर जाती है,,,,दूर देशों के प्रवासी परिंदे,,और यंहा के रहवासी कुहूकते चुहुकते गोते लगाते इसके आलस्य को जैसे भेदते है,,,प्रकीर्णित प्रकाश बिम्बों से चमकती ये पीर पंजाल सा वातावरण खड़ा कर देती है,,, फिर शाम भी उतरती है आहिस्ते आहिस्ते ,,इंद्रधनुषी छटा बिखेरते ,,रात चान्दनी से चमकती इस घाटी में एक आदिम वियोग गीत का अलाप होता है,,,,सुर्खाब या चक्रवाक का जोड़ा ,,जो हर शाम बिछड़ कर ,,इसे स्वरबद्ध करता है
                          प्राकृत काव्य विशारद ,,राजशेखर ने कर्पूर मंजरी नाट्य में,,,चकवा को सुंदरता में हंस से अधिक तरजीह दी है,,हिमालय पार से सुर्खाब का झुंड जाड़े में इस झील में उतरता है,,ऋग वैदिक काल से  साहित्य में उतरता वृस्मित सौंदर्य,,,,नोँउका विहार के दौरान ,,कंही गुल की कलाबाजियां ,,कंही सिकपर बतखों और बड़े पनकौवे की डुबकियां,,,और फिर तट पर बने कौसल भैया के खपरेल वाले टेंट हाउस में ,,,भिन्न भिन्न प्रजातियों की मछलियों के पूरे कुनबे से मुलाकात,,,चूल्हे में रँधाये,, धुंगियाये,, खट्टे साग का सुवाद,,,, खुड़िया के पास एक वन्य बस्ती ,,बैगा आदिवासियों की भी है,,जंहा जाना ,,अगली बार तय हुआ,,आखिर इस सौंदर्य को बार बार निहारने के लिए कुछ शेष तो छोड़ना ही होगा,,,खूबसूरत खुड़िया