Monday, June 29, 2015

सोती हुई वो पांच बहने

सोती हुई वो पांच बहने,,

मानसून की पहली झड़ी से पके काले जामुन यूँ बरसे, कि सेन्ट फ्रांसिस चर्च का बैकयार्ड अब जामुनी हो चला था,, सिली मिट्टी पे भटकते रोवैंदार भुंसे के कीड़ों के बीच शुर्ख मलमल कीट भटक रही थी,, जब बादलों से  रिसती फीकी धूप जर्मन सिस्टर ब्रिथेट की बूढी नीली आँखों के कोनो पे चमकी ,,,और फिर  खुदाई,,,शुरू हो गई; कब्रो में सोती उन पांच सिस्टर्स  को जगाने के लिए ,,,
          ,,, ये सिस्टर्स ईश्वर का सन्देश लेकर यंहा कभी आई थी इस वन्य प्रदेश में,,अब केवल बूढी ब्रिथेड ही बची थी ,,जो उस रोज  बारिश से उफनती हुई जोंक नदी में कूदी ,,उन बहती सिस्टर्स को बचाने,,उन्मादी झाग छोड़ते भंवर के बीच आखिरी चींख गूंजी फिर वो छटपटाते हाथ खिंच गए भीतर  ,  ,,जब पानी उतरा तब फूला हुआ शरीर किनारे लगा ,, यंही चर्च के पीछे वो संस्कार हुआ जब सभी मुरझाये चेहरे अंतिम प्रार्थना बुदबुदाते रहे  और सिस्टर्स के क्राउन पे सजा मलमल का लाल गुलाब ही खिला हुआ था ,,,, मोक्छ के उस दिन के इन्तजार में जब सभी रूहें फिर निकलेंगी अपनी कब्रो से ,,
                 पर  विकास का राजमार्ग यंहा पहिले पहुंच गया,,और अब ये कब्रे ;जो रस्ते पर थी खुद रही थी ,,,,,,,चर्च के दूसरे अनुयाई भी अब यंहा इक्कठे थे फुस्फुसाने लगे ,,हमारे पूर्वजों का मोक्छ ,,,उनकी कच्ची कबरें भी यंही बैकयार्ड में कंही थी,,,,पर कन्हा,,प्रशासन पूरी जमीन तो नही खोद सकता,,,पीटर की रात की शराब सांसों के साथ भभकी जब उसने पूछा ,,,साहब मेरा बाबा घलो इंही गड़ा रहा,,मोक्छ न पाये सन्ही,,,फेर मुवावजा तो हमारा भी तय हो,,,आखिर,,,ब्रिथेड फिर सुबकने लगी,,,,,इन सिस्टर्स के साथ उसने जो मोक्छ का रस्ता यंहा कभी दिखाया था,,,,भटक गया ,,,खुदाई रुक गई,,,कब्र के भीतर रखे ताबूत को तो जामुन की फैली जड़ों ने जाने कब से बेध दिया पर उस क्राउन का जूना मलमली गुलाब वैसे ही खिला हुआ था,,,,
अनुभव
               
               

Saturday, June 27, 2015

गुटखा

गुटखा
जन्हा मेंछा का पिका फूटा ,,,कि साला ढंग ढंग का हार्मोन ऎसा खेल खेलता है कि बोचकता हाफ पेंट ,,पतलून हो जाता है ,,,माने हुआ छोकरा जवा रे,,,,मन कूदने लगता है की कुछ नया करू और इसी दूराहे पे हमारे मोहल्ले के युवा दो टीम बाँट लिए,,एक थी जिंदगी को धुवें में उड़ाने वाली पलायन वादी धूम्रपानी कौम औ दूसरी सब कुछ को चबा जाने वाले दृढ इरादों से लबरेज गुटखेरी कौम ,,,जन्हा धूम्रपानी कौम,,,गोला बीड़ी परम्परा के गौरव को समेटे ब्रिस्टल औ विल्स की दण्डी लिए कोई  कोलकी खोजती थी दुबक कर  नेट प्रेक्टिस करने वास्ते,,वही दूसरी कौम को सार्वजनिक मंच के बीचो बिच अपनी जवानी की उदघोसना का हथियार मिल गया था ,,,गुटखा,,,
                पान चबाने की ऐतिहासिक कला के छेत्र में गुटखा वो क्रांति थी,,,जो अस्सी के दशक में सर्वप्रथम टेलीविजन में जलाल आगा से उद्घोषित हुई ,,,,बरातियों का स्वागत पान पराग से कीजिये,,,, और सभी पान ठेले पुकार उट्ठे ,,,अरे आप भी पान पराग के शौकीन है,, तो ये लीजिये पान पराग,,,,
                इस क्रांतिकारी दौर में गुटखा चबाते हुए व्यक्ति को देख कर ऐसा लगता जैसे उसे परम् ब्रह्म प्राप्त हो गए ,,,पान पराग ,,भूंजी सुपारी ठंडाई इलायची और बाबा 120,,, अहाहा हा,,,,जैसे ही कागज की पुड़िया खुलती पुरे माहौल निर्वाण भाव से भर जाता,,,और कई मुफ्तखोर हाँथ पुड़िया की ओर लपलपा जाते,,,कचरंग क्चरनग चगलाते  गुटखे से भरे मुख पीक  प्रकछेपन के लांचिंग पेड़ बन गए  ,,,पिच्च ,,,पिच्च ,,,एक पतली सी भूरी गुलाबी धार जो शहर के हर कोने में आपके अस्तित्व के हस्ताकच्छर करते चलती,,  लेकिन यह समाजवाद  भी जल्द ही पूंजीवादी विषमता का शिकार हुआ,,,और कई नए ब्रांड उभर आये,,जन्म हुआ लटकती हुई पाउच संस्कृति का ,,,ऊँचे लोग ऊँची पसंद जैसी उदघोसना करती मानिकचन्द खाने वाले रईस और यामू के पचास पैसे के पाउच को चगलते सर्वहारा गरीब,,,, इस विभाजन ने एकता में वो दरार डाली की ,,,,धीरे धीरे नई पीढ़ी को गुटखा गुड़ाखू सा बिलो स्टेंडर्ड प्रतीत होने लगा,,,,आखिरी चोट सरकार ने की जिसे दूसरी सहस्त्राब्दि में जाकर ज्ञात हुआ कि इसके चबाने से कर्क रोग होता है,,,और हर टाकीज में पान पराग के राग की जगह भयंकर रोग विज्ञापनों ने ले ली,,उधर मोहल्ले के उस पीढ़ी का युवापन भी अब प्रौढ़ता की बढ़ चला ,,,अब जवानी की उगली पीक के दाग अखरने लगे तो कवायद शुरू हुई गुटखा मुक्ति की,,आज वो पूरी टीम एक दूसरे को निकोटेक्स से लेकर अजवाइन सौंप के फार्मूले आदान प्रदान कर रही है फेर जवानी का पहला प्यार कन्हा आसानी से भूलता है,,,,,
अनुभव

             
                 

Friday, June 26, 2015

बाबा

बाबा नाम दादागिरी की दुनिया में वही महत्व रखता है जैसे इतिहास में विक्रमादित्य की उपाधि ,बाह्मण पारा के पहले बाबा चन्द्रहास दुबे जी के भयंकर मर्दाना किस्सों ने ऐसे उच्च मानक स्थापित किये कि,,आई पी सी की धारा 302 या 307 में डुबकी लगाने से  हुई जेल यात्रा  के बाद ही यह विशेषण किसी के उपनाम के रूप में पुकारा जाता   ,, तँहु आज ले बाबा होगेस,,,टाइप,,,,प्रथम बाबा की तरेरी आँखे और खरखराती आवाज की छबि तो मानो गॉड फादर के अल्पचिनो से लेकर अग्निपथ के बच्चन तक बिगर गई,,आतिश फ़िल्म  में सञ्जयदत्त के नामकरण ने इसे औ पॉपुलर कर दिया , मोहल्ले वासी आज भी कई विधयकों और मंत्रियो को गेंदा माला पहिनाते हुए याद कर उठते है की कैसे उन दिनों फलाना चौक में यही महानुभाव बाबा दादा के लिए फेब्रेट मुगल मोनार्क विस्की के पैग बनाते थे या सिगरेट बारते थे ,,,
              बाद के बाबाओ ने उपाधि अनुरूप बिहनिया से अपना पैग तो सजा लिया फेर उन महान साहसिक घटनाओ की पुनरावृति न कर पाये ,,,सो शहर से चौक और चौक से गल्ली तक बाबागिरी सिमट गई ,, आई पी सी की भारी धाराओ को छोड़ 151 के डबरे में ही डुबकी लगने लगी ,,,,ऐसे ही कुछ आखिरी बाबाओ में सुंदर नगर के बाबा डान ने तो पुरानी बस्ती थाना में जांघिये में बैठ कर पुलिस के पड़ते पट्टे के साथ उपाधि की गरिमा को भी तार तार कर दिया,,,,और आज बाबा उपाधि दादागिरी के शिखर से उत्तर कर योग और धर्म के गढ्डे में गोता लगा लिया है ओ हा तो बाबा रामदेव हो गे हे टाइप,,,, और आखिरी विक्रमदित्यो की तरह इस प्रसिद्ध उपाधि के धारक भी टुच्चेपने की धार में बोहा गए,,,,

अनुभव

Thursday, June 11, 2015

मुर्दे

मुर्दे मरे हुए भाषा के प्रेत जैसे
डराते है डकारो नही ऐसे