Tuesday, September 9, 2014

निश्चिन्त मृत्यु का कथन

निश्चिन्त मृत्यु का कथन
झुलसे हुए शरीर में केवल वो दो आंखे  ही तो थी जो अब भी पानीदार थी ... और बाते कर रही थी ...बर्न यूनिट के उस बिस्तर पे ढकी.. दर्द से ऐंठती.. उस बैचन रूह को अभी भी . कुछ आखिरी शब्द कहने थे .एक बिधिक दस्तावेज को भरने वाले ...आखिरी शब्द ...शीर्षक था ..मृत्यु पूर्व कथन ..
                       रविवार .की.अघोसित छुट्टी में पुलिस के सिपाही या फिर उस डाक्टर या उस मजिस्ट्रेट के कुछ बहुमूल्य घंटों में से आज जो दो कोरे कागज भरे जायेंगे ..वही है एक झुलसी हुई जिन्दगी का सार ..हर एक पीड़ा की कहानी जो फफोलो के रूप में जो आज उभर आइ थी ..या उन आँखों से  लुढ्कती  कुछ नमकीन खुशिया..
                        वो खुशिया परदे के उस पार से अपनी माँ को बड़े ही संकोच से झांक रही थी ... काले पडे उस शरीर में अपनी माँ को खोजते ... उन तीखे प्रश्नो के बीच
                आग कैसे लगी ...क्या तुम्हे किसी ने जलाया... उस झुलसे शरीर ने अपनी पूरी ताकत से जुड़े हुए होंठो को हिलाने की कोशिस की ..सिफर ..फिर तेज होती सांसो के बीच उस माँ की नजरो ने परदे के उस पार से ही अपने बच्चो को पा  लिया ...जिनमें  संजोये भविष्य के सपने अब  बह रहे थे ..उन आँखों ने उसके बाद क्या क्या देखा..  सोंचा ..पता नही ...लेकिन अब वो कुछ निश्चिन्त थी ...प्रश्न फिर दोहराए गए ...क्या तुम्हे किसी ने जलाया ....अब वो चेहरा हिल रहा था ...नही ..यही तो मतलब था उसका ..नहीं ......परदे के उस पार भी उन बच्चो को सँभाले ठहरी सांसे भी शायद अब निश्चिन्त होंगी ..
अनुभव

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