Monday, March 10, 2014

बाप की जमींन

बाप की जमींन (महिला दिवस को समर्पित)
भूखिन बाई  के पोपले मुह में दो दांत ही  थे  कील की तरह होंठो के बीच से उभरे हुए..अपनी सूखती जीभ को वो बार बार लार से लपेट लेती थी चप चप ..मकड़ी के जाले सी लकीरों से भरा चेहरा... लकीरे एक शिरोरेखा सी...जिस पे कुछ लिखा हो ..और मिट गया हो
               कांसू पर्रा ल भीतरिया दे ..चप चप...फेर झरी परही ..झप्पर से रिझता पानी ...बेमौसम...चना में कीरा परही कांसू ...ये मौसम में भजिया खात रिहिस मोर बाप ...भूखिन इकलौती थी छोटी सी अपने बाप की उंगली पकड़ जब खेत जाती ..देख तोरे जमींन हे बेटी...फूल जाती थी भूखिन..मोर बाप के जमींन मोर जमींन..ब्याह के बाद जमींन के साथ ही उसकी विदाई हुई ससुराल को
            भूखिन का घरवाला चना बोता था ...पांच एकड में हरियाते चने के छोटे छोटे पौधे....  रोज अपनी सास को याद दिलाती थी भूखिन .मोरे बाप के जमींन ले बोजत हो .सास के ताने का जवाब ..बाझिन रोगहि लईका नै दे सकस तो छोड़ दे मोर टूरा ल.. दिन भर की चकचक का.हिसाब रात को पति लेता था.. फेर एक दिन  भूखिन ने ही चूड़ी बदल ली ...अब उस जमीन में कांसू का बाप सब्जी भाजी उगाने लगा ..बेटा हुआ गए में हुई कांसू...बाप के बाद अब बेटा कमाता है...बहु  आई सो फिर पुरानी कहानी आघे बढ़ी  ...डोकरी मरे नहीं ..डोमी कस बैठ गे हे..भुखिन्न का वही पुराना अजमाया जुमला ..एकर नै मोर बाप के जमींन हे ..तेकर बल में तिरर्तिरात हस अतका.. ..तै टार अपन मुहु ल हम नै मरन..अपन बेटी ल दे देबो जा.. माँ के मीठे दुध का सुवाद भुला जाता है कड़वे बोल ने बेटे को जरजरा दिया..डोकरी तोर बाप के  हे तो का कब्ज़ा तो मोरे हे ..फेर आज नहीं तो काल मरबे..के ले के जाबे साथ में.
       ..तहसील में कासु का हाथ धरे गयी भुखिंन ..मोतियाबिंद भरी आंखे झरने लगी..तै पूरा जमीन ल मोर बेटी के नाम कर दे साहेब....भगवान टुरी जात के किसमत में लात ही लिखे हे ठीक हेबफेर बोल तो पाही मोर माँ के जमीन ..अतका  भरोसा में ही काट लेही...कासू पर्रा भितरा रही है... कासु पटवारी आईस क..कब्ज़ा दिलवाए बर...खटिया में बैठ कर भूखिन बडबडा रही है ...मोर बाप के जमीन
अनुभव

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