Tuesday, December 16, 2025
बाजरे की खिचड़ी : ज़ायके का लोकतंत्रहिंदुस्तानी खिचड़ी की कई नस्लें हैं और हर नस्ल की अपनी रिवायत, अपनी पंचायत और अपना मिज़ाज है। कहीं वह सादी, पतली, भात-सी बीमरहिन बनकर कमज़ोर जिस्म को सहारा देती है, तो कहीं पंच पकवानों में पकी बीरबल की शाही खिचड़ी बन जाती है, जहाँ ज़ायका तख़्त पर बैठा नज़र आता है। खिचड़ी का कमाल यही है कि जैसी ज़बान की फ़रमाइश हो, वैसा ही उसका असर भी हो जाता है। जाड़े की रात में गरम-गरम खिचड़ी से हुई मुलाक़ात दिल को भी गरमा देती है।इन तमाम सूरतों के बीच बाजरे की खिचड़ी अपनी अलग पहचान रखती है। यह नाज़ुक नहीं, खालिस खुरदुरी होती है—ठेठ देहाती, बिना बनावट के। इसमें मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू बसती है और रसोई की सच्चाई झलकती है। ऊपर से जब देसी घी चुचवा कर डाल दिया जाए, तो यह खिचड़ी सिर्फ़ पेट नहीं, मन भी भर देती है।बाजरे की खिचड़ी की फ़ितरत बड़ी खुली है। इसमें तरह-तरह के साग बे-झिझक आ बैठते हैं—हरा बटरा, गोभी, टमाटर, खड़ी हरी मिर्च। कोई क़ायदा-क़ानून नहीं, कोई मना नहीं। एक चुटकी हींग और थोड़ी-सी अजवाइन इसके मिज़ाज को और वसीअ कर देती है। यह खाना कम, मेहफ़िल ज़्यादा मालूम होता है।इसके साथ आने वाले साथी भी कम अहम नहीं। पापड़, क़दीमी नींबू का अचार और रात के वक़्त भी ज़रा-सा दही यहाँ पूरी तरह जायज़ ठहरता है। आज के दौर में लाल मिर्च का लहसुनी ठेंचा भी इसकी संगत में शामिल हो गया है—सुर्ख़, तीखा और बेबाक।बाजरे की खिचड़ी जल्दबाज़ी पसंद नहीं करती। यह धीमी आँच पर पकती है, इत्मीनान से, जब तक मूंग दाल पूरी तरह गल न जाए और बाजरा अपनी खुरदुरी शख़्सियत के साथ घुल-मिल न जाए। फिर इसे थाली में पसर जाने दिया जाता है—कुछ कौर चम्मच से और कुछ उँगलियों में लपेट-लपेट कर। यह खाने का नहीं, एहसास का अमल है।यक़ीनन, बाजरे की खिचड़ी भारतीय संविधान की प्रस्तावना की मानिंद है—सबको साथ लेने वाली, समावेशी और बराबरी की बात कहने वाली। इस तहज़ीबी ज़ायके को सिर्फ़ चखना नहीं चाहिए, इसे महसूस करना चाहिए।
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