Monday, December 15, 2025

शेर सिंह

कहानी

बर-झाड़ के झुरमुटों से घिरा एक छोटा-सा इलाका जिसका नाम पड़ा बार
यहीं  था नौ गोंड परिवारों का गाँव था—नवापारा
दो जुड़वाँ गाँव, और उन्हें चारों ओर से घेरे—बारनवापारा का घना बीहड़ जंगल।
अब लोग जो बाहर से आते है और कहते,
“लुवाठ का जंगल है… शेर तो है हे नहीं ,,,
पर गाँव वाले हँस देते।
“कौन कहता है शेर नहीं है?”
देवपुर घाट में मिले नहीं थी बाघ के पंजों के छापे
फोकट में तो नहीं उभरते। कभी यह गाँव भी शेर की दहाड़ से काँपता था। देर रात गूंजती थी  घाटों की नमी भरी गहराइया,,, झकझोंर देने वाली ध्वनि , और अल सबेरे जंगल की पगडंडी  जो सूखे नाले के साथ  रेंगती थी उसकि सफेद चमकीली धूल पे बड़े पंजे लगते थे,,,नर बाघ के,,, चौक्कने सांभर की चीत्कार ,,,कई मील दूर काले मुंह का लंगूर दहीमन की डालियों में छटपटाने लगता,,,मयूर वन गीत गाता,,,राजा साहेब की सवारी निकली है,,,सावधान,, पिहूयूँयूं, पिहूूयूँय,,,,,,,, मृग झुंड की पनियारी आंखे फैल लेती ,,जब धीमी बहती वन समीर पूरे परिवेश को उस बघयारिन गंध से मम्हहा देती

 कभी बहुत साल गए एक अमावस की रात आई,जब शिकारी भी आया,,पेड़ों पर मचान कसे गए,,नीचे भैंसा-पड़वा बाँधा गया।

पड़वा रात भर नरियाता रहा—
“माँऽऽ… माँऽऽ…”
सूखे पत्तों की चरचराहट दूर तक फैल गई।
बिसरैन की तीखी गंध हवा में भर गई।
अँधियारे में दो आँखें चमकीं—
बग्घ!

“आन दे… और आन दे…”फुसफुसाहट 
 अचानक,,बीस हाथ दूर से डबल बैरल गूँजी।ऐसा लगा मानो साल और सागौन के पेड़ों को किसी ने झकझोर कर जगा दिया हो।पूरा जंगल हिल उठा। भोर होते-होते गाँव में खटिया सजी।रात भर के मारे गए बाघों की कतारें ,,पूरा गाँव इकट्ठा था,,,कोई गिन रहा था,कोई पहचान रहा था।

“ये परसापाली वाला है,”
किसी ने कहा,
“मोर… बछिया उठाया रहा था।”
“इसका पिला होगा कहीं…”

उसी खटिया के पास
शुकुल जी बैठे थे,
अपनी दू-नाली साफ करते हुए।
“वो आदमी जल्दी में भाग काहे रहा है?”रे

बुढ़वा ठाकुर बताया
“आज ही उसका बेटा हुआ है साहेब
नरवा काटे खातिर औजार लेने जा रहा है।”

शुकुल जी मुस्कुराते हुए बोले
“तो फिर बच्चे का नाम रखो—शेर सिंह।”

और उस बच्चे का नाम पड़ गया 

बरस बीतते गए।
अब जंगल में शेर दिखना ही बंद हो गया।
पर ये कहानी बची रही।

आज का शेर सिंग,,,साठ बरस का डोकरा है। शाम को भुर्री तापते बच्चों को घेर कर बैठता है,,,और वही कहानी सुनाता है। कहता है“जेन दिन मैं जनमा,ओ दिन ले शेर ही नहीं दिखा कोई को,,,,शेर होगा फेर…पर अब दिखेगा काहे?”। हँसता है। “डरता होगा कहीं कि कोई फिर किसी लइका का नाम शेर सिंग झन धर दे…”आखिर  बारह शेर मारे गए ,, उस रोज,,जंगल यूं चुप रहता है पर उसकी चुप्पी में वही पुरानी दहाड़ अब भी कहीं गूँजती रहती है।

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