Thursday, August 6, 2020

नाना जी

हमारे नाना जी कमाल के जादूगर भी थे,,उनके कई तमाशो के चश्मदीद हमारा छुटपन रहा,,,,सुबह बरामदे की तखत में उनकी बैठक जमती,,सामने की खिड़की से सूरज की रौशनी ग्रिल से छनती हुई दीवार पे बिखरती होती जिसमे तैरते गोला बीड़ी के धुंवे के छल्ले के बीच एक जादुई मंच बना जाता,,बिखरे सेविंग किट,,के बीच सिह सिह करती नानी के हाथों चीनी मिट्टी के कप में जब तीसरी चाय सुडुक जाती तब कंही वो खेला प्रारम्भ होता,,,उस दौर में बच्चों के लिए,,,रंग बिरंगी बाँटिया बहुमूल्य निधि होती थी,,,नाना जी पहले दोनों हाथों को मसलते,, फिर हमें दिखाते,,,खाली है ,,दर्शकों की सहमती,,, खाली है,,,अब देखो,,,ध्यान से ,,,,और मन्त्र उच्चारण जिसे हम कभी समझ न पाए,,,फिर दन्त हीन मुख से बाँटिया एक एक कर बरसने लगती,, बाटियों की ताबड़ तोड़ बारिश,, सबके हिस्से जादुई बाँटिया बट जाती,,,बजाओ ताली,,तड़ तड़ तड़,,,काफी बाद में जाकर पता लगा,,की पृष्ठभूमि में खड़ी छोटी मौसी इस जादुई खेल में उनकी सहायिका थी,,बांटी पीछे मुड़े हाथों तक पहुचाने में,,,एक शरारत भरा खेल भूत दिखाने का भी होता,,जिसके चपेडे में कोई एक बार ही आता,,, वो देखो भूत ,,कंहा ,,,बच्चा ऊपर खोजता,,,वो दे रे बुजा के,,,कंहा,,और फिर सुलगती बीड़ी चुट से पैर में जलती,,,बाल क्रंदन की ध्वनि से पूरा माहौल गूंज उठता,,,और नाना जी की हंसी,,,उहि तो है रे,,,खिन्नन्नंन्नं भरी नाना जी की हंसी जीभ निकाल कर खांसते हुए ही समाप्त होती,,,,,,ऐसे कई जादुई खेल रोज की दिनचर्या में शामिल थे,,,पर ये ऐसा खेल था जिसका टिकिट का पैसा भी आखिरकार हमे ही मिलता,,,गोल चवन्नी,,वो भी उनके कान से निकली हुई,,,,,,,,बाल मनोविज्ञान के सभी प्रयोग उस दौर में हम पर हुए,,,आज वो स्मृतियां ही किसी जादुई लोक की लगती है

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