Saturday, April 12, 2014

सुख दुःख की रंगीन टोकरी

सुख दुःख की रंगीन टोकनी
..स्कुल की दीवार से लगकर थी रेवा दाई की बैठक...उस कोने को कभी खाली ही नही देखा था..सुबह पाली की प्रार्थना से पहल्रे ही छाते के नीचे टोकरी जो सज जाती तो फिर शाम की घंटी बजने तक  अनवरत जारी ...उस जादू की टोकरी में एक पूरा खट्टा मीठा संसार बसता था..पिटे हुए विद्यार्थियों के लिए ठंडी हरी सत की गोली..या तीखा  काला चूरन...चटखारी लडकियों के लिए कच्ची इमली और खड़ा नमक..उबाऊ क्क्छाओ के बीच राहत देंने वाली बोइर कूट की डंडी ..या फिर उंगलियों में फ़सने वाला गर्बीला नड्डा ..जो मुह से लग कर तो गरजता था फिर यु घुल जाता की जैसे कुछ खाया भी की नहीं.गजब की विविधता.सुख दुःख के स्वादो को समेटती एक रंगीन दुनिया...दोपहर की बड़ी रिशेस में रेवा बाइ के गिर्द एक घेरा बन जाता..पांच पैसे से लेकर एक रूपये तक का लम्बा व्यापार..फिर भी पाई पाई का ऐसा पक्का हिसाब की खरीदी के पहले ही ग्राहक का अकाउंट स्टेटमेंट निकल आता..तोर कल के पचास पैसा बाचे हे..कलिंदर के चानी नयी खाए रहेस..इंकार की कोई गुंजाईश ही नही.स्कुल में तो फिर चल भी जाये..यंहा तो हाजरी देनी ही होगी..गुरूजी से ज्यादा रोब था रेवा का..सो हर विद्यार्थी का केरेक्टर सर्टिफिकेट यंहा से भी जारी होता था..तै महराज के लईका ओकर संग झन खेले कर...बदमाश हे वो टूरा ह..हेडमास्टर का चेहरा तो अब कुछ धुंधला भी गया पर रेवा का वो बड़ा लाल टीका और गोदने से भरा चेहरा आज भी याद है
                              यूँही एक बार थोडा झिझकते हुए गाड़ी उस किनारे रोक ली..बूढी रेवा वैसे ही जमी हुई...पर आज भी  उतनी ही तेज याददाश्त ...उसने पूरा बचपन उलद दिया ..आज के साहब बनने की नीव खोद रही थी..तैं ता शुरू ले होशियार रहेस..व्यापार पे भी चर्चा जरूरी थी सो बोली..अब नई रह गे महराज ..सामने दुकान खुले ले पहिली जैसन कंहा रिहि..समोसा बर्गर के सामने खस्ता नड्डा ध्वस्त हो गए थे...चमकीली रेपर वाली चाकलेटो के सामने पीपी गोलियों के रंग फीके पड गए..काफी कुछ बदल गया था... पर अर्थव्यवस्था के चढ़ाव का इतना ही असर उस रगीन टोकने में हुआ था की चवन्नी अट्ठनी की सीमा  अब रूपये से पांच रूपये तक पहुच गयी थी..लेकिन जो नहीं बदला था वो था रेवा का मिजाज..बोइर कूट हाथ में धरते हुए बोली ..तोर   लईका मन बर हे महराज..अभी पैसा झन दे ..उधारी में रीही ..फेर आबे

अनुभव

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